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द्रुहं॒ जिघां॑सन्ध्व॒रस॑मनि॒न्द्रां तेति॑क्ते ति॒ग्मा तु॒जसे॒ अनी॑का। ऋ॒णा चि॒द्यत्र॑ ऋण॒या न॑ उ॒ग्रो दू॒रे अज्ञा॑ता उ॒षसो॑ बबा॒धे ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

druhaṁ jighāṁsan dhvarasam anindrāṁ tetikte tigmā tujase anīkā | ṛṇā cid yatra ṛṇayā na ugro dūre ajñātā uṣaso babādhe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दुह॑म्। जिघां॑सन्। ध्व॒रस॑म्। अ॒नि॒न्द्राम्। तेति॑क्ते। ति॒ग्मा। तु॒जसे। अनी॑का। ऋ॒णा। चि॒त्। यत्र॑। ऋ॒ण॒ऽयाः। नः॒। उ॒ग्रः। दू॒रे। अज्ञा॑ताः। उ॒षसः॑। ब॒बा॒धे ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:23» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शत्रुनिवारण के अनुकूल सेना की उन्नति के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्र) जहाँ (नः) हम लोगों का जो (उग्रः) तीव्र प्रताप (दूरे) दूर स्थान में (अज्ञाताः) नहीं जानी गई शत्रुओं की सेनाओं को (उषसः) प्रातःकाल से अन्धकार को जैसे सूर्य्य वैसे (बबाधे) विलोता है (ऋणयाः) प्राप्त सेना से (चित्) भी (तुजसे) बल के लिये अथवा शत्रुओं के नाश के लिये (तिग्मा) तीव्र (ऋणा) प्राप्त (अनीका) शत्रुओं से प्राप्त नहीं होने योग्य सैन्यसमूहों को (तेतिक्ते) अत्यन्त तीक्ष्ण करता है (द्रुहम्) द्रोह करने और (ध्वरसम्) हिंसा करनेवाले को (जिघांसन्) नष्ट करने की इच्छा करता हुआ (अनिन्द्राम्) ईश्वरसम्बन्धरहित मार्ग को (बबाधे) विलोता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो लोग उत्तम प्रकार शिक्षित, श्रेष्ठ, शत्रुओं को शीघ्र पराजय करनेवाली सेनाओं को सिद्ध करें, जिनसे दूर स्थान में भी वर्त्तमान शत्रु लोग डरें, दारिद्र्य और भय को दूरकर अपनी प्रजा को आनन्द देकर दुष्टों का निरन्तर नाश करें, उनका आप सदा ही सत्कार करो ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शत्रुनिवारणसेनोन्नतिविषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यत्र नो य उग्रो दूरेऽज्ञाताः शत्रुसेना उषसस्तमः सूर्य्य इव बबाध ऋणयाश्चित् तुजसे तिग्मा ऋणा अनीका तेतिक्ते द्रुहं ध्वरसं जिघांसन्ननिन्द्रां बबाधे ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्रुहम्) द्रोग्धारम् (जिघांसन्) हन्तुमिच्छन् (ध्वरसम्) हिंसकम् (अनिन्द्राम्) अनीश्वरीं गतिम् (तेतिक्ते) भृशं तीक्ष्णं करोति (तिग्मा) तिग्मानि तीव्राणि (तुजसे) बलाय शत्रूणां हिंसनाय वा (अनीका) शत्रुभिः प्राप्तुमनर्हाणि सैन्यानि (ऋणा) प्राप्तानि (चित्) अपि (यत्र) (ऋणयाः) प्राप्तया सेनया (नः) अस्माकम् (उग्रः) तीव्रः प्रभावः (दूरे) विप्रकृष्टे (अज्ञाताः) न ज्ञाताः (उषसः) प्रभातान् (बबाधे) बाधते ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! ये सुशिक्षितान्युत्तमानि शत्रूणां सद्यः पराजयकराणि सैन्यानि सम्पादयेयुर्यतोऽदूरेऽपि सन्तः शत्रवो बिभियुर्दारिद्र्यं भयञ्च दूरीकृत्य स्वप्रजाञ्चाऽऽनन्द्य दुष्टान् सततं हिंस्युस्तांस्त्वं सदैव सत्कुर्याः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जे लोक उत्तम प्रकारे शिक्षित, श्रेष्ठ, शत्रूंना पराजित करणारी सेना तयार करतात, ज्यांना दूर असलेल्या शत्रूंनीही भ्यावे, दारिद्र्य व भय दूर करून अपल्या प्रजेला आनंदित करून दुष्टांचा सतत नाश करतात त्यांचाच सदैव सत्कार कर. ॥ ७ ॥